क्या लिखूँ इस कविता के के बारे मे:
कल रात को अमृत पीने के बाद अपने आँसू , दीपक बाबा की आँखों
मे देखकर भावनाओं ने शब्दों का रूप ले लिया । "वियोगी होगा पहला कवि" सोचकर
भावनाओं के जंगल से निकले इन शब्द रूपी फूलों को प्राची की माला के रूप में गूंथ कर बाबा
के चरणकमल में समर्पित करने का एक छोटा सा प्रयास ..
कुछ ऐसा करो प्राची
जिससे ये लगे की, इन रगों का खून रुका नहीं है।
काट दो इन नसों को,
थाम लो इन नब्जों
को,
पहरे बिठा दो इन
धडकनों पे,
कुछ ऐसा करो की,
किसी भी रास्ते से तुम्हारी याद आ न सके।
इन सांसो को तब तक
रोक दो,
जब तक तुम्हारी खुशबू जा न सके॥
जब तक तुम्हारी खुशबू जा न सके॥
इन धडकनों को तब तक
बंद रखो,
जब तक तुम्हारा
एहसास भुला न सके।
चाहे इसमे,
मेरी जान ही क्यों
न चली जाए,
मेरे खून का कतरा
कतरा मिट जाए,
चाहे ये नब्ज़
हमेशा के लिये रुक जाए॥
मगर कुछ कुछ ऐसा
करो प्राची॥
मै इंतजार करूँगा..
उस अस्तित्वविहीन
भौतिक जीवन का,
बरसो सदियों या कई
जन्मों,
सिर्फ अपनी धडकनों
के साथ,
सिर्फ अपने ख्वाबो
के साथ॥
ये मेरी मृगमरीचिका
ही सही,
मगर कुछ ऐसा करो
प्राची,
जिससे मुझे एहसास
हो, मेरे अपने होने का..
कुछ ऐसा करो प्राची,
जिससे सिर्फ और
सिर्फ मेरे ख्वाब और मेरी सांसे मेरे पास हो॥
तुम तो जानती थी न, की
जमीर यूँ ही नहीं सुन्न होता ..
क्योंकि उसे पता होता है -
सुन्न होने की अगली स्थिति क्या होगी..
जानती हो न प्राची.. अंतिम पंक्तिया : (साभार) बाबा
कुछ ऐसा करो प्राची॥