शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

लोकतंत्र

मित्रो,
कई देशों में आज कल लोकतंत्र के लिए क्रांति हो रही है..भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है..लेकिन हमारे सिस्टम और इसको चलने वालों ने इसे कौन सी दशा और दिशा दी है..इसी की दुर्दशा पर लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ..


जब संसद के गलियारे में,
ये सोच विचरने लगती है..
गाँधी के कपड़े पहने हुआ,
ये बाहुबली है या नेता है...
तब लोकतंत्र क्या सोता है??

जब संसद की सीमा के अन्दर,
रुपये लहराये जाते हैं....
जब सत्ता की बलिवेदी पर.
सिधांत चढ़ाये जाते हैं,
जब दूध की नन्ही चाहत में,
एक छोटा बच्चा रोता है...
तब लोकतंत्र क्या सोता है??

जब छद्म सेकुलर नारों से,
और सत्ता के हथियारों से,
कार सेवक मारा जाता है....
जब बाबू की घूसखोरी से,
बूढ़ा पेंशन की आँस गंवाता है...
जब पांच सितारा होटल में,
मंत्री जी का कुत्ता सोता है..
तब हाड़ तोडती ठंढक मे,
एक बूढ़ा पहरा देता है..
तब लोकतंत्र क्या सोता है?


जब जेल में बैठा जेहादी अफजल,
संसद में खून बहता है..
जब सीमा पर लड़ता प्रहरी,
ताबूत में वापस आता है..
इस लोकतंत्र की रक्षा में,
अपना सर्वस्व लुटाता है..
तब लाल किले का एक दलाल,
अफजल की गाथा गाता है...
जब उस शहीद का बूढ़ा बाप,
वो वीर पदक लौटता है....
सर्वस्व न्योछावर करने का
जब हश्र यहाँ ये होता है......
तब लोकतंत्र क्या सोता है??
तब लोकतंत्र क्या सोता है??

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आप को ये कृति कैसी लगी अपने विचार कृपया निचे लिखें..आप के विचार महत्वपूर्ण संबल होंगे मेरे लेखन में..

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

वो पेड़ आज भी अकेला खड़ा है.



एहसासों की चादर मे लिपटे हुए
वक़्त की धूप मे अलसाये हुए ख्वाब
अब अंगड़ाई लेने लगे है ........

शायद उस बंजर जमीन में
जो तुमने बीज बोया था
आँसूओं की नमी से..
उस बीज मे अंकुर निकल रहा है..
कुछ बरस बाद ये बीज पेड़ बन जाएंगे..

ये ख्वाब एहसासों की चादर हटायेंगे
कुछ ख्वाब टूटेंगे, कुछ सच हो जाएंगे....
जो मंजिल हमने साथ देखी थी,
वहां पहुचने पर मेरे ख्वाब मुझे..
एकाकी पाएंगे...........

कुछ पथिक पेड़ के नीचे ठहरेंगे बातें करेंगे,
फिर अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाएंगे..
हर घंटे दिन बरस .......
पेड़ को अकेला खड़ा पायेंगे......

वो पेड़ आज भी अकेला खड़ा है..
उस मंजिल पर,जो हमने साथ देखी थी...
सब कुछ तो है..
पर तुम्हारे न होने का एहसास
इस मंजिल पर, इस पेड़ के नीचे...
टूटे पत्तों की तरह,बिखरा पड़ा है.......
वो पेड़ आज भी अकेला खड़ा है..
वो पेड़ आज भी अकेला खड़ा है..


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बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

निर्मल वर्मा की"जलती झाड़ी"

अभी कुछ दिनों पहले की बात है..
शनिवार का दिन था..
दफ्तर के कार्यकलाप से छूट्टी थी,
आज पीनी मुझे साहित्य की घुट्टी थी..
आलमारी से पद्म विभूषण निर्मल वर्मा की,
"जलती झाड़ी" पुस्तक निकाल लाया ,
साहित्य सुधा के अपार सागर में..
मैने दो-एक डुबकियाँ था लगाया...
चंद पृष्ठों के बाद..
मेरा दूरभाष घनघनाया,
मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने,
मेरे साहित्य रस पान पे था ब्रेक लगाया .....
साहब ने मुझे,
संस्था की मुख्य शाखा पर था बुलवाया ...
साथ में पूरे साल का,
लेखा जोखा भी मंगवाया...
मैं थोडा सहमा,थोडा घबराया,
जल्दी ही संयत होते हुए,
विमानतल की ओर कदम बढाया..

रास्ते में मुझे,
सफ़र के लम्बे होने का ध्यान आया.
अफ़सोस हुआ "जलती झाड़ी" भी जल्दबाजी में
मैं घर ही भूल आया
तभी जहन में ये ख्याल आया,
मैं हिंदुस्तान की राजधानी में हूँ श्रीमान..
विमानस्थल पर खरीद लूँगा..
निर्मल की "जलती झाड़ी" या प्रेमचन्द्र की गोदान....
ये सोच कर मैं मन ही मन मुस्कराया..
अब जा कर मेरी साहित्यिक बेचैनी को,
थोडा चैन आया ..
विमानतल पर पंहुचा ,
कुछ खुबसूरत चेहरों ने..
थोडा मुस्कराकर,कुछ स्वागत शब्द सुनाकर ,
अन्दर जाने का रास्ता बतलाया ...
इन सबके बिच मेरा मस्तिष्क ढूंढ़ रहा था,
निर्मल जी की "जलती झाडी" का साया...
अन्दर गया,पास में था एक पुस्तक क्रय केंद्र,
वहां पहुंचा तो अपने आप को,
पुस्तकों से घिरा पाया...
पर ये क्या???
कुछ के नाम शायद पढ़ सकता था..
कुछ के नाम भी नहीं पढ़ पाया.....
ये सब विदेशी अंग्रेजी किताबें थी..
जिनमें थी निहित
शेक्सपीयर और केट्स की माया...

हिम्मत की थोडा और आगे बढ़ा,
अंग्रेजी स्टाइल में था एक देसी सेल्समैन खड़ा
मैं भी गया और अंग्रेजी झाड़ी...
बोला "कैन आई गेट निर्मल वर्मा की जलती झाडी"
सेल्समैन ने सर उठाया..
कुछ इस तरह से मुझे देखा जैसे..
मैकाले के इस देसी भारत में..
ये परदेशी गाँधी कहाँ से आया????

थोडा मुस्कराकर उसनें फ़रमाया ,
सर"जलती झाडी' पे डालो पानी..
पढना शुरू करो अब,
विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता रूमानी..
मैं बोला भईया मैं हूँ ..
गांव वाला सीधा साधा हिन्दुस्तानी,
अगर नहीं है निर्मल जी की "जलती झाडी"
तो दे दो मुझको,
मुंशी प्रेमचंद्र की कोई कहानी..

अब सेल्समैन का पारा थोडा ऊपर चढ़ा
उसने कहा अगर प्रेमचंद्र को पढना है.
तो एअरपोर्ट पर तू क्यों है खड़ा???
जा किसी आदिवासी स्टेशन पर,
वहीँ मिलेगा तुझे ये हिंदी का कूड़ा...
खैर,मैं जैसे तैसे पुस्तक क्रय केंद्र से बाहर आया,
सोचा,ये दुनिया का है इकलौता देश महान..
जहाँ नहीं मिलता मातृभाषा को सम्मान..
कभी सेकुलरिज्म की चक्की में,
पिसतें है हिन्दू..
तो कभी हिंदी का होता है..
हिंदूस्थान में ही अपमान...

अब मुझे आगे था जाना..
सामने खड़ा था वायुयान
अनायास ही याद आये,
भारतेंदु जी और उनका नारा
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान"....

आइये हम सभी सोचें..
हिंदी और हिन्दू तो अब तक,
झेल रहें हैं मैकाले की गुलामी..
क्या अगले गुलामी क्रम में होगा
हम सब का हिंदूस्थान ????

चलिये जाते जाते एक बार फिर
कम से कम दोहरा लें .
" बोलो भैया दे दे तान,हिंदी हिन्दू हिंदूस्थान" ......

“मेरा भारत महान”