शनिवार, 20 नवंबर 2010

मुक्तिगीत


इस वसुधा में सन्नाटा है..
वो व्योम नजर नहीं आता है.
मेरे दुख के झंकृत तरंग को,
ये काल छिनने आया है...
शायद पथ के हमराही ने,
अब मुक्तिगीत को गाया है.
क्या अंतसमय अब आया है.....

तरु पर बैठा खेचर निढाल.
रवि का मस्तक हो गया लाल,
इस संध्या रागिनी बेला में,
ये कोलाहल क्यों समाया है...
आक्रांत रवि की किरणों से
क्या तुमने सिंदूर लगाया है??


इस दृग की सीमाओं ने जो,
अंतिम विश्वास लगाया था..
सर्वस्व समर्पण करने का,
जो राग प्रीत का गया था..
भुज पाश से निज मुक्ति दे कर,
सब कुछ का अर्घ्य चढ़ाया है......
क्या अंतसमय अब आया है...






पाताल में या स्वर्ग से,
इस जलधि के उत्सर्ग से...
उन्माद था जो बह गया..
स्तब्ध नीरव पत्थरों का,
मर्म बाकि रह गया...
इन पत्थरो का मर्म अब,
भगवान बन कर आया है.... (भगवान = शिवलिंग)
क्या अंतसमय अब आया है......




2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कविता लिखी है

    पाताल में या स्वर्ग से,
    इस जलधि के उत्सर्ग से...
    उन्माद था जो बह गया..
    स्तब्ध नीरव पत्थरों का,
    मर्म बाकि रह गया...
    इन पत्थरो का मर्म अब,
    भगवान बन कर आया है.... (भगवान = शिवलिंग)
    क्या अंतसमय अब आया है....

    अंतिम गद्य मन को छू गया.

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  2. संक्षेप में कहा जाए तो-- ""अदभुत..."

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